खलील जिब्रान
तुँ पुछै चिही कि हम पागल कोना भेल्यै ? बात ई भेलै कि एक दिन जब बहुतो देवता सब अखन पैदो नै भेल रहै, हम एक गहिर निन्द से जागल्यै आ देखै चियै त हमर समस्त मुखौटा उ सब सातो मुखौटा जे हम सात जनम मे बनाइने रहिए आ पहनने छेलिएै एकाएक चोरी भ्यागेलै । बस हम भीडभाड मे रास्ता बनाबैत निराबरणे “चोर ! चोर ! ! नारकीय चोर ! ! !” हल्ला करैत दौड पडलिए । मरद आ जनानी सब हमरा देखैत हाँसैले लाग्लै आ कुछ त लाजसे घरमे दुबैक गेलै ।
जब हम बीच बजार मे पुग्लिएै त एक युवक जे छत पर खडा छेलै हल्ला कैरत बोललै, “पागल छै ! विचरा पागल छै !!” ओकरा देखैले जब हम उपर आँईख उठाईलिए तब प्रथम बार सूरुज के किरण हमरा चुम्मा लेलकै । हमर आत्मा सूरुज के प्रेम मे व्हिल भेलै तहिया से हमरा उ मुखौटा के कोनो आवश्यक नै महशुस भेलै । हम अचानक से चीहुँक उठलिए, “भला हौक ओई चोर के जे हमर मुखौटा चोर्या लेलकै” आ अइ तरह से हम पागल बैन गेलए। आ ई पागलपन मे स्वतन्त्रता आ सुरक्षा दोनो प्राप्त भेलै । एकाकिपन के स्वतन्त्रता आ अज्ञेयता के सुरक्षा, किया के त जे लोग हमरा जाईन जायछै उ हमर कर्तव्य के कोनो ने कोनो अँश के गुलाम बनालैछै ।
परन्तु अपन सुरक्षा पर अधिक गौरब नै करना चाही । बन्दीगृह मे बन्द एक चोर सोहो दोसर चोर से असुरक्षित रहैछै ।
अनुवादः रंजन लेखी
साज, बाहिया, ब्राजिल
७ अक्टोवर २०१९
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